गज़ल****महेंद्र जोशी
सोचता हूँ यहीं ठहर जाऊं
और तुज से लिपटके घर जाऊं
आन्धियों से कहो ठहर जाए
दीप लेकर कहीं गुजर जाऊं
मैंने माना लकीर हूँ ,तो हूँ
वक्त के पैर को छूकर जाऊं
तू कहे तो यूँही चला जाऊं
और ये भी कहे किधर जाऊं
गूँज खामोशियोमे उठती है
मै न तन्हाइओसे डर जाऊं
इक रास्ता जो तुज तलक जाता
नीम के पेड़ है गुजर जाऊं
रोज दरिया ले के कहां जाऊं
दोस्त के कंधे पर उभर जाऊं
महेंद्र जोशी .....................२४-०५ -१४