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Wednesday 25 June 2014

गज़ल****महेंद्र जोशी 

सोचता हूँ यहीं ठहर जाऊं 
और तुज से लिपटके घर जाऊं 

आन्धियों से कहो ठहर जाए 
दीप लेकर कहीं  गुजर जाऊं

मैंने माना लकीर हूँ ,तो हूँ 
वक्त के पैर को छूकर जाऊं

तू कहे तो यूँही चला जाऊं 
और ये भी कहे  किधर जाऊं 

गूँज खामोशियोमे उठती है 
मै न तन्हाइओसे डर जाऊं 

इक रास्ता जो तुज तलक जाता 
नीम के  पेड़ है  गुजर  जाऊं 

रोज दरिया ले के कहां जाऊं 
दोस्त के कंधे पर उभर जाऊं  
 महेंद्र जोशी .....................२४-०५ -१४ 

Sunday 22 June 2014

गज़ल***महेंद्र जोशी

उम्रभर परछाई भी चलती रही
साथ ही तन्हाई भी चलती रही

मै चला तो ये समंदर भी चला
पहाड़ की हर खाई भी चलती रही

साफ़-सुथरे लोग थे सुनता रहा
अच्छे की रुसवाई भी चलती रही

मैं तो नंगे पाँव ही जा कर खड़ा
पेड़ की कटवाई भी चलती रही

इक कबूतर मन में पाला  है अभी
दाने की चुगवाई  भी चलती रही

उस तरफ खामोशिया बढती रही
इस तरफ सुनवाई भी चलती रही

दोस्त अब दानाइओ के वेश में
कब से ये सौदाइआ चलती रही  

महेंद्र जोशी ....मार्च २०१४ 

Saturday 21 June 2014

खूब है *** महेंद्र जोशी

कुछ नहीं तेरी कमी है खूब है
फिर भी अपनी जिंदगी है खूब है

हम नहीं कचरे की कोई  पेटी
खेत की मिटटी भरी है खूब है

इस तरह से इस लहू को मत छुओ
ऐक ज़िंदा बीजली है खूब है

वो समंदर अच्छे लगते उस तरफ
इस तरफ तो तश्नगी है खूब है

कोई रिश्ते जो महोबत से जुड़े
हमने माना बंदगी है खूब है

वक़्त उस का क्या अलग चलता यहाँ
जिस्म में इक ही घडी है खूब है

आँख से ओज़ल हुआ जाता जहाँँ
पाँव है ना तो जमीहै खूब है

दोस्त जोशी ना गली है ना तो घर
जाने कैसी सादगी है खूब है

तश्नगी...तृषा   जिस्म ...शरीर

महेंद्र जोशी      एप्रिल १४